हरियाणवी भाषा को राज्य भाषा का दर्जा मिलना चाहिए। इसके लिए आवश्यक मानकों को सभी को एकजुट होकर पूरा करना होगा। यह निष्कर्ष विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान में हरियाणा साहित्य अकादमी एवं विद्या भारती के संयुक्त तत्वावधान मेें आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी के प्रथम दिवस ‘हरियाणा के लोक साहित्य के विविध आयाम’ विषय में निकला। संगोष्ठी का शुभारंभ हरियाणा साहित्य अकादमी के उपाध्यक्ष डॉ. राधेश्याम शर्मा एवं अन्य अतिथियों ने मां सरस्वती के समक्ष दीप प्रज्जवलन करके किया। संगोष्ठी के प्रथम सत्र में मुख्यातिथि डॉ. पूर्णचंद शर्मा थे जबकि कार्यक्रम की अध्यक्षता डॉ. जयनारायण कौशिक ने की। मुख्य वक्ता के रूप में डॉ. विश्वबंधु शर्मा एवं डॉ. बालकिशन शर्मा शामिल हुए। कार्यक्रम में अकादमी की निदेशक डॉ. कुमुद बंसल ने आए हुए अतिथियों को श्रीफल देकर सम्मानित किया। विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के निदेशक डॉ. रामेन्द्र सिंह ने आए हुए अतिथियों एवं साहित्यकारों का धन्यवाद किया। डॉ. राधेश्याम शर्मा ने कहा कि हरियाणवी में गंभीर, सारगर्भित, वात्सल्य, संवेदनात्मक साहित्य के अलावा बहुत बड़ा पुट हास्य का है और यही उसकी विशेषता है। जितनी सम्पन्न हरियाणवी भाषा है और जितनी उसमें मौलिकता है, उसका कोई मुकाबला नहीं। संगोष्ठी में मुख्य वक्ता डॉ. विश्वबंधु शर्मा ने कहा कि जितने भी लोक नाट्य प्रसिद्ध हुए हैं, उनमें हरियाणा का सांग सर्वश्रेष्ठ है। सांस्कृतिक और भाषा की दृष्टि से हरियाणा अपना अलग ही आयाम रखता है। उन्होंने कहा कि हरियाणवी विश्व साहित्य की बेजोड़ भाषा है जो संस्कृत से निकलकर आई है। 13वीं शती के प्रारंभ से ही हरियाणा नामक आंचल में भजनीकों, सांगियों की परम्पराएं उपलब्ध हैं। डॉ. अनिल सवेरा ने कहा कि हरियाणा के अस्तित्व में आने से पूर्व भी हरियाणवी में पद्य लेखन की समृद्ध परम्परा रही है। इसका प्रमाण यहां का नाथ और संत साहित्य है। उन्होंने विभिन्न साहित्यकारों के नाम देते हुए बताया कि हरियाणवी कवियों ने वैदिक, पौराणिक, ऐतिहासिक व समसामयिक सभी विषयों पर काव्य रचनाएं की हैं। डॉ. बालकृष्ण शर्मा ने विभिन्न साहित्यकारों द्वारा रचित कविताएं एवं छन्दों के माध्यम से ध्यान इंगित किया। उन्होंने लख्मीचंद द्वारा रचित पंक्तियां ‘‘जो सतगुर नै परख दिया कदे खोटा ना होणे का, जो ईश्वर नै बढ़ा दिया कदे छोटा ना होणे का, जिस घर में पतिभरता नारी, कदे टोटा ना होणे का, कैर पशु और चतर आदमी कदे मोटा ना होणे का’’, मांगेराम की पंक्तियां ‘भूप भरथरी तेरे राज में ऐसा अचरज भारी देख्या, रजपूतां की बीरा गेल्यां करता पाजी यारी देख्या…..’ सहित अनेक रचनाएं सुनाकर हरियाणवी लोक साहित्य को सबके सम्मुख रखा। मुख्यातिथि डॉ. पूर्णचंद शर्मा ने कहा कि हरियाणा की पाचन शक्ति प्रशंसनीय है। इसने संस्कृत, उर्दू, फारसी, पंजाबी, राजस्थानी, अंग्रेजी आदि अनेक शब्दों को पचाकर अपनी काया को पुष्ट किया है। उन्होंने हरियाणा की संस्कृति को आलोकित करने वाली पंक्तियां ‘‘हरि की भूम्मी हरियाणो तनै, बार-बार हम सीस निवावां। ज्ञान ध्यान की इस धरती के, आ_ुं पहर सदा गुण गावां…..’’, गर्भ से अजन्मी बेटी की पुकार के लिए गीत ‘‘जन्म देण की हो सै मां, और कष्ट खेण की हो सै मां, ममता की मूरत हो सै मां, भगवान की सूरत हो सै मां…..’’ सहित अनेक गीत हरियाणवी लोक साहित्य से प्रस्तुत किए।
संगोष्ठी के दूसरे सत्र की अध्यक्षता रामफल चहल ने की जबकि वक्ता के रूप में डॉ. ओ.पी.कादियान, सत्यवीर नाहडिय़ा रहे। सत्यवीर नाहडिय़ा ने सभी को मन, वचन और कर्म से हरियाणवी भाषा के लिए कार्य करने का आह्वान किया। उन्होंने कहा कि हरियाणवी को भाषा का दर्जा मिलना चाहिए। हरियाणवी भाषा पर प्राचीन काल से ही कार्य होता आ रहा है लेकिन अपेक्षित मूल्यांकन नहीं हो पाया। डॉ. ओ.पी.कादियान ने कहा कि हरियाणा के लोकगीतों में हास्य व्यंग्य है। यहां का लोक साहित्य हंसी मजाक से भरा पड़ा है। उन्होंने विवाह समारोहों पर हरियाणा में ग्रामीणों द्वारा हास्य व्यंग्य बाण छोडऩे एवं छंद गाए जाने का भी जिक्र किया। इस अवसर पर डॉ. लालचंद गुप्त ‘मंगल’ ने कहा कि हरियाणवी भाषा के संरक्षण, संवद्र्धन पर सरकार की ओर से तो कार्य हो ही रहा है लेकिन समाज को भी इसमें अपनी अग्रणी भागीदारी सुनिश्चित करनी चाहिए। इसे भाषा का दर्जा दिलाने के लिए आवश्यक मानकों को पूरा करना होगा। उन्होंने कहा कि संगोष्ठी में इतनी संख्या में प्रदेशभर से साहित्यकारों का इक_ा होना सुखद विषय है। डॉ. रामफल चहल ने कहा कि जब कोई बोली चलन में आती है और उसमें व्याकरण का पुट आ जाए तो वह भाषा बन जाती है। हरियाणवी भाषा में हर क्रिया के लिए अलग-अलग शब्द हैं और इसका कोई पर्यायवाची नहीं है। उन्होंने कहा कि हरियाणवी को विश्वविद्यालय स्तर पर लागू करवाना चाहिए। संगोष्ठी के तृतीय सत्र की अध्यक्षता डॉ. शिवकुमार ने की जबकि मुख्य अतिथि के रूप में डॉ. संतराम देशवाल उपस्थित रहे। मुख्य वक्ता डॉ. बाबूराम ने कहा कि हरियाणवी भाषा को लेकर अकादमी अपने स्तर पर कार्य कर रही है लेकिन कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय इसमें काफी आगे है। उन्होंने कहा कि हरियाणवी भाषा को अग्रसर करने के लिए साहित्यकारों पर शोध कराना अत्यंत आवश्यक है। हरियाणवी का हिन्दी के विकास में अहम योगदान है। उन्होंने हरियाणा के अलग-अलग जिलों में अलग-अलग हरियाणवी बोलियों पर चर्चा करते हुए कहा कि पूरे हरियाणा का केन्द्र मानकर यदि एक बोली को केंद्रित कर सकते हैं तो वह है कौरवी बोली। हरियाणा को भाषा का दर्जा दिलाने के लिए आंदोलन की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि हरियाणवी वैदिक भाषा के बहुत निकट पाई गई है। वक्ता डॉ. महासिंह पूनिया ने कहा कि हरियाणवी शब्दावली को देखें तो इसमें वैदिक शब्दावली के हजारों शब्द हैं। व्याकरणिक संस्कृत में भी हरियाणवी के शब्द मिलते हैं। उन्होंने कहा कि भाषा की अभिव्यक्ति के माध्यम से ही उसकी वैज्ञानिकता का पता चलता है। हरियाणा में हरियाणवी भाषा रूपी मोती बिखरे पड़े हैं जिन्हें एकत्रित करने की आवश्यकता है। गांव में बिखरे पड़े लोक साहित्य को संकलित करने की आवश्यकता है। इस अवसर पर डॉ. महासिंह पूनिया द्वारा लिखित पुस्तक ‘लोक साहित्य धरोहर’ का विमोचन भी हुआ। संगोष्ठी का मंच संचालन उर्मिला शर्मा ‘सखी’ ने किया। संगोष्ठी में डॉ. राजेन्द्र स्वरूप वत्स, भारत भूषण सांगेवाल, रामकुमार आत्रेय सहित प्रदेश के अलग-अलग जिलों से आए अनेक साहित्यकार एवं शोध छात्रों ने भाग लिया।