सरस्वती नदी के मनोरम किनारे पर भद्रावती नाम का सुन्दर क्षेत्र था। उस नगर में चन्द्रवंशी राजा धृतिमान राज्य करते थे। उसी नगर में एक समृद्ध वैश्य निवास करते थे उनका नाम धनपाल था। वह श्री हरि की भक्ति करते हुए सतकर्मों में ही अपना जीवन व्यतित करते। उनके पांच पुत्र थे : सुमना, धुतिमान, मेघावी, सुकृत तथा धृष्टबुद्धि। सबसे छोटा पुत्र धृष्टबुद्धि उनसे विपरित स्वभाव का था। वह पाप कर्मों में सदा लिप्त रहता। गलत कामों में पड़कर अपने पिता का नाम और धन बर्बाद करता। एक दिन उसके पिता कार्यवश कहीं जा रहे थे रास्ते में उन्होंने देखा धृष्टबुद्धि वेश्या के गले में बांह डाले घूम रहा था। पिता ने उसी पल उसका त्याग कर दिया और अपने से संबंध विच्छेद करते हुए उसे अपनी दौलत ज्यादाद से भी बेदखल कर दिया। सभी सगे-संबंधियों ने भी उससे सभी रिश्ते नाते समाप्त कर दिए।
जब उसके पास धन नहीं रहा तो वैश्या ने उसे अपने घर से बाहर किया। वह भूख- प्यास से तड़पता हुआ ईधर-उधर भटकने लगा। अपना दुख-दर्द बांटने वाला उसके पास कोई न था। एक दिन भटकते-भटकते उसका पूर्वकाल का कोई पुण्य जागृत हुआ और वह महर्षि कौण्डिन्य के आश्रम में जा पहुंचा। वैशाख का महीना था। गर्मी जोरो पर थी कौण्डिन्य गंगा जी में स्नान करके आए थे। धृष्टबुद्धि कौण्डिन्य जी के समीप जाकर हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया और बोला, “ब्राह्मण देव कृपया करके मुझ पर दया करके किसी ऐसे व्रत के विषय बताएं जिसके पुण्य से मेरी मुक्ति हो जाए।”
कौण्डिन्य जी बोले, “वैशाख माह के शुक्लपक्ष की एकादशी ‘मोहिनी’ नाम से विख्यात है। उस एकादशी का व्रत करो । इस व्रत के प्रभाव से तुम्हारे इस जन्म के ही नहीं अनेक जन्मों के महापाप भी नष्ट हो जाएंगे।”
मुनि के कहे अनुसार धृष्टबुद्धि ने ‘मोहिनी एकादशी’ का व्रत किया। व्रत के प्रभाव से वह निष्पाप हो कर दिव्य देह धारण कर गरुड़ पर आरुढ़ हो श्री हरि का प्रिय बनकर विष्णुलोक को चला गया। इस कथा को पढ़ने और सुनने से सहस्र गौ दान के समान फल प्राप्त होता है।